दुनिया के सबसे अधिक सामाजिक विषमता वाले देशों में भारत का स्थान प्रमुख है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया में छब्बीस करोड़ से अधिक लोग विभिन्न कारणों से सामाजिक विषताओं के शिकार हैं। इसके पीछे जातीय भेदभाव, छुआछूत और ऊंच-नीच की भावना प्रमुख है। भारत में जन्मगत जाति के आधार पर भेदभाव की प्रथा पुरानी है। उससे आज भी भारतीय समाज मुक्त नहीं हो पाया है। जातीय भेदभाव, ऊंच-नीच और छुआछूत को खत्म करने के लिए शताब्दियों से सामाजिक आंदोलन और जागरण के कार्य भी किए जाते रहे हैं, लेकिन विषमताओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी भारतीय समाज इस कलंक से मुक्त नहीं हो पाया है।
सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए पत्रकारिता के जरिए भी अनेक ठोस प्रयास किए जाते रहे हैं। अनेक हिंदी पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक विषमता के खिलाफ लंबी लड़ाइयां लड़ीं। ग्रामीण क्षेत्रों से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं में भी सामाजिक विषमता के खिलाफ लगातार जागरूकता अभियान चलाए जाते रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए किए गए प्रयास भी महत्व रखते हैं। कानून में सामाजिक विषमता के खिलाफ अनेक प्रावधान किए गए हैं, जिनमें जाति, वर्ग, संप्रदाय या धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव करना अपराध के दायरे में रखा गया है। अनेक स्वयंसेवी संगठन भी इसके खिलाफ काम करते रहे हैं, लेकिन इनका कोई खास असर दिखाई नहीं पड़ता है।
समाज में जातीय भेदभाव के कारण आज भी भाईचारे की वह भावना नहीं पनप पाई है, जिसकी बातें मंचों से बहुत जोरशोर से की जाती रही हैं। आज भी भारत के गांवों में दलितों और पिछड़ी जातियों के साथ कथित उच्च जातियों के लोग मानवीय व्यवहार नहीं करते। समाज के आर्थिक रूप से संपन्न जातियों के लोगों द्वारा खोदी गई विषमता की खाई अभी देखने में तो कम होती जान पड़ती है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। समाज के दबंग लोगों को कानून की कोई परवाह न होने के कारण पीड़ित द्वारा पुलिस में की गई शिकायत पर कार्रवाई भी दबंगों के मन मुताबिक होती रही है। आजादी के बाद हजारों ऐसी घटनाएं इसकी गवाह हैं जब पुलिस ने पीड़ित की मदद के बजाय दबंग की मदद की। सैकड़ों मामलों में पीड़ित दलित को शिकायत करने पर पुलिसिया जुल्म का शिकार होना पड़ा। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब पुलिस में शिकायत के बाद दबंगों ने पीड़ितों के परिवार को ही मौत के घाट उतार दिया और पुलिस ने उसे आत्महत्या बताकर मामले को रफा-दफा कर दिया।
कुछ राज्यों में तो जाति व्यवस्था के मुताबिक पुलिस लाइनों और थानों में उच्च कही जाने वाली जातियों, पिछड़ों, दलितों और महादलितों के लिए अलग-अलग भोजन की व्यवस्था समाचार पत्रों की सुर्खियों में रही हैं। बिहार में अनेक वर्षों तक लाल सेना, रणवीर सेना और अन्य जातीय सेनाओं के दबंग जाति के आधार पर हिंसक वारदात करते रहे हैं और वहां की तत्कालीन सरकार मूकदर्शक बनी रही। इसलिए कि इससे उसका वोट बैंक खिसकने का डर था। तब से लेकर अब तक स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों और पत्रिकाओं में इस जातीय विषमता के खिलाफ आवाज बुलंद की गई, लेकिन सरकार पर इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ।
जाति व्यवस्था के कारण ही भारत की नब्बे प्रतिशत सामाजिक विषमताएं, समस्याएं और विसंगतियां पैदा हुई हैं। इस सच्चाई को केंद्र और राज्य सरकारें जानती हैं। इसके बावजूद जाति-पांति को जिंदा रखने के लिए नौकरियों और लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में जाति का विवरण भरना अनिवार्य बनाया गया है। जब तक जन्मगत ऊंच-नीच और भेदभाव की दीवारें कायम रहेंगी, तब तक विषमता की बेल को खाद-पानी मिलता रहेगा और समाज में बड़े स्तर पर सद्गुण, मानवीय मूल्य, सामाजिक मूल्यों और पारिवारिक मूल्यों की स्थापना नहीं हो सकती है। विषमता के कारण समाज का कमजोर तबका राजनेताओं और समाज सेवकों की दोहरी नीति का भी शिकार होता रहा है।
सवाल है कि सामाजिक विषमता का दंश केवल दलित और पिछड़ी जातियां क्यों झेलती हैं, अन्य जातियां इसका शिकार क्यों नहीं होतीं? इस सवाल का जवाब सर्वोच्च न्यायालय की वह टिप्पणी है, जो उसने हरियाणा के मिर्चपुर कांड के मामले में की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इन लोगों का कसूर मात्र यह है कि ये गरीब और दलित हैं। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने कभी कहा था- शिक्षित बनो, संघर्ष करो और आगे बढ़ो। लेकिन सवाल यह है कि शिक्षित दलित पुरुष या महिलाओं का उत्पीड़न नहीं हो रहा है क्या? केवल शिक्षित बनने या संघर्ष करने से बात बनती नहीं दिख रही है।
भारत का सामाजिक ढांचा ही विषमता का कारण है। जन्म के आधार पर ही यहां मान लिया जाता है कि ऊंची जाति का व्यक्ति अच्छा है और नीची जाति का व्यक्ति उपेक्षणीय है। इस जन्मगत जाति-व्यवस्था को खत्म करने के लिए जितने भी आंदोलन चलाए गए, उन्हें सफलता तो मिली, लेकिन हमेशा के लिए इस बुराई को खत्म नहीं किया जा सका है। अनेक महापुरुषों ने जन्मगत सामाजिक विषमता के लिए अत्यंत कठिन समय में भी तमाम कष्टों को सहकर खुद को सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया था। आज से लगभग डेढ़ शताब्दी पहले सामाजिक विषमता के विरुद्ध जो आवाजें उठाई गई थीं, उसके फलस्वरूप तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने इसको दूर करने के लिए कुछ कानून बनाए, लेकिन सामाजिक विषमता के कलंक को दूर नहीं किया जा सका।
आजादी के बाद भारतीय संविधान में अस्पृश्यता, विषमता, भेदभाव, ऊंचनीच अमानवीयता, क्रूरता, प्रताड़ना और अन्य गैरइंसानी व्यवहारों को खत्म करने के लिए सरकार की ओर से जहां अनेक कदम उठाए गए। वहीं भारतीय पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक विषमताओं, विशेषकर दलितों पर अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार और अन्य बुराइयों के खिलाफ जनजागृति लाने के प्रयास किए। छोटे कस्बों, गांवों और नगरों से निकलने वाले पत्रों ने भी इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए लेकिन जनमानस में दलितों के प्रति उपेक्षा और अनादर के भाव को खत्म करने की दिशा में अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
आजादी के बाद कानून के खौफ या शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण लोगों की मानसिकता में कुछ बदलाव तो आया है, लेकिन जन्मगत रूढ़ियों और संस्कारों के कारण पूरी तरह से बदलाव नहीं आ सका है। इस दिशा में अभी व्यावहारिक उपायों की दरकार बनी हुई है।